संघ की प्रतिनिधि सभा जन भावना को समझ कर काम करने से हो रहा विस्तार
अवधेश कुमार, नई दिल्ली
नागपुर में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा के दौरान संपूर्ण भारत और भारत में अभिरुचि रखने वाले विश्व भर के मीडिया का एकत्रीकरण था। संघ के कार्यक्रमों, योजनाओं, वक्तव्यों आदि के प्रति मीडिया की उत्सुकता और गंभीरता अब एक स्थाई व्यवहार है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं। सामान्य तौर पर पत्रकारों और मीडिया संस्थानों में धारणा अभी भी यही है कि संघ भाजपा को चलाती है, इसलिए सरकार पर उसका पूरा नियंत्रण है और यहां जो निर्णय होगा, बोला जाएगा उनमें सरकार और राजनीति केंद्र बिंदु होगा तथा उसका असर भी होगा। सामने लोकसभा चुनाव के कारण ऐसा लग रहा था कि वहां से इसके संबंध में कुछ रणनीति ऐसी बनेगी, ऐसा वक्तव्य आएगा जो समाचार , बहस और विचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण होंगे। ऐसा नहीं है कि प्रतिनिधि सभा में वैसे निर्णय या घोषणाएं नहीं हुई जो राष्ट्रीय महत्व के विषय नहीं है या जिन पर चर्चा नहीं हो सकती। परंतु लंबे अनुभव के बावजूद अगर पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की अवधारणा बदली नहीं है कि चुनाव या राजनीतिक दल या सरकार को फोकस करके संघ के आयोजन होते नहीं। यह संभव नहीं कि देश में चुनाव हो और इसमें संघ की अभिरुचि नहीं हो या उसमें उनकी कोई भूमिका हो ही नहीं। मूल बात है कि यह भूमिका किस रूप में हो सकती है ?इस बारे में संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले का वक्तव्य ध्यान देने योग्य है- चुनाव देश के लोकतंत्र का महापर्व है। देश में लोकतंत्र और एकता को अधिक मजबूत करना और प्रगति की गति को बनाए रखना आवश्यक है। संघ के स्वयंसेवक सौ प्रतिशत मतदान के लिए समाज में जन-जागरण करेंगे। समाज में इसके संदर्भ में कोई भी वैमनस्य, अलगाव, बिखराव या एकता के विपरीत कोई बात न हो, इसके प्रति समाज जागृत रहे। राजनीति और चुनाव को सर्वोपरि मान लेने वाले इस माहौल में सहसा विश्वास करना कठिन है कि देश का सबसे बड़े स्वयंसेवकों का संगठन केवल मतदाता जागरूकता या समाज में सौमन्स्य आदि की दृष्टि से ही चुनाव के दौरान काम करेगा। तो यह पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की जिम्मेवारी है कि वे देखें कि ऐसा होता है या नहीं?
ऐसे सभी संगठनों की जो सीधे दलीय चुनावी राजनीति में शामिल नहीं है, यही यथेष्ट भूमिका हो सकती है। मतदान में किसी दल या उम्मीदवार को अवश्य सहयोग करिए, लेकिन संगठन के रूप में चुनावी भूमिका नहीं होनी चाहिए। आप मतदाताओं के बीच जाएं, उन्हें मुद्दों के प्रति जागरूक करें , मतदान के लिए प्रेरित करें तथा इस बीच राजनीतिक दलों के परस्पर आक्रामक तीखे बयानों, आरोपों तथा समाज के अंदर मतदान के लिए वैमनस्य फैलाने वाले या तनाव और हिंसा पैदा करने वालों के असर को कम करने की कोशिश करें। यह अलग बात है कि नेताओं , बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का एक वर्ग सार्वजनिक तौर पर इसे स्वीकार करेगा ही नहीं कि वाकई संघ की यही भूमिका होगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयं को अगर समाज में एक संगठन की जगह समाज का संगठन मानता है तो उसके लिए कोई राजनीतिक दल दुश्मन नहीं हो सकता। हां, राजनीतिक दलों के नीतियां उसके विरुद्ध हैं, यानी उसके अनुसार देश हित में नहीं है तो तात्कालिक विरोध किया जा सकता है।
अगर प्रतिनिधि सभा के बारे में आए सभी समाचारों को साथ मिला दें तो भी इसका किंचित आभास नहीं मिलता कि इस बैठक का किसी भी दृष्टिकोण से लोकसभा चुनाव से लेना देना था।
प्रतिनिधि सभा ऐसी बैठक होती है जिसमें संघ के सभी शीर्ष पदाधिकारी, प्रांत स्तर के पदाधिकारी और 36 अनुषांगिक संगठनों के प्रमुख या प्रतिनिधि उपस्थित होते हैं। इस नाते 1500 वैसे प्रमुख प्रतिनिधियों की एक जगह उपस्थिति, विमर्श और निर्णय अत्यंत महत्व के होंगे। इस प्रतिनिधि सभा में सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले का पुनर्निर्वाचन हुआ और वह अब अगले 3 वर्ष यानी 2027 तक इस पद पर बने रहेंगे। वास्तव में संघ पर निष्पक्षता से अध्ययन करने वाले इसका खंडन करते हैं कि यहां चुनाव होता ही नहीं। चुनाव नियमित होते हैं किंतु ज्यादातर अन्य संगठनों या राजनीतिक दलों की तरह यहां पदों की होड़ न होने के कारण नकारात्मक प्रतिस्पर्धा नहीं होती। यहां निर्वाचित और अंततः नियुक्त अधिकारियों का सामान्यतः निर्धारित कार्यकाल 3 वर्ष का होता है।
प्रतिनिधि सभा से घोषित कार्यक्रमों में अहिल्याबाई होल्कर के जन्म के 300 वर्ष को मई, 2024 से अप्रैल 2025 तक मनाया जाना है। कितने राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जयंती के महत्व का आभास है? कौन राष्ट्रीय संगठन समाज विशेषकर महिलाओं को प्रेरणा देने की दृष्टि से इस तरह का कार्यक्रम आयोजित करेगा? इसके अलावा जो विषय वहां चर्चा में थे उनमें संघ के स्वयंसेवकों द्वारा वर्ष में किए गए मुख्य कार्य,श्रीराम मंदिर निर्माण और रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का राष्ट्रीय जागरण की दृष्टि से प्रभाव, संदेशखाली की भयावाहक घटना और मणिपुर, पंजाब आदि शामिल थे। अगर दत्तात्रेय होसबोले यह कहते हैं कि स्वतंत्र भारत में संदेशखाली जैसी घटनाएं लोगों को झकझोर देने वाली हैं, दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए तथा इसमें सभी दलों को अपनी राजनीतिक स्वार्थों को छोड़कर महिला सुरक्षा और समाज के इस विषय पर एक मत से ऐसी कार्रवाई करनी चाहिए कि भविष्य में ऐसा करने को कोई सोच नहीं सके तो इससे कौन असहमत हो सकता है? संदेशखाली जैसी घटना स्वतंत्र भारत में केवल पश्चिम बंगाल इन्हीं संपूर्ण देश पर ऐसा दाग है जिसे मिटाना आसान नहीं। भारत में स्वतंत्रता, समानता और समता पर आधारित समाज के लक्ष्य रखने वाले हर संगठन और व्यक्ति को संदेशखाली चिंतित करने वाला होना चाहिए। दुर्भाग्य से राजनीतिक, बौद्धिक एवं आंदोलनात्मक एक्टिविस्टों की दुनिया में इतना तीखा विभाजन है कि यह सोचकर कहीं भाजपा को इसका चुनावी लाभ न मिल जाए अनेक दल, संगठन, बुद्धिजीवी और पत्रकार इसे बड़ा मुद्दा बनाने से बचते हैं। यह शर्मनाक है, पाखंड है। ऐसे लोग सॉन्ग पर कोई टिप्पणी भी करेंगे तो समाज उसे स्वीकार नहीं कर सकता।
स्वाभाविक है कि 2025 की विजयदशमी को संघ का 100 वर्ष पूरा हो रहा है तो उसकी चर्चा होगी और उसके अनुसार योजनाएं बनेंगी। हालांकि जितनी जानकारी आई है संघ यही कह रहा है कि उसे जब तक यह संसार है तब तक काम करते रहना है, उसमें अनेक 100 वर्ष आएंगे। तो 100 वर्ष का कोई ऐसा विशेष महत्व नहीं है किंतु उसका ध्यान रखते हुए ज्यादा से ज्यादा शाखा और संपर्क विस्तार हो यही लक्ष्य सामने आ रहा है और उसी की पुष्टि प्रतिनिधि सभा में भी हुई। संघ द्वारा दिए आंकड़ों के अनुसार 2023 के 68,651 शाखाओं के मुकाबले संघ की शाखाओं की संख्या बढ़कर 73,117 पर पहुंच गई। जिन स्थानों पर संघ की शाखा लगती है, उनकी संख्या 42,613 से बढ़कर 45,600 हो गई। प्रतिनिधि सभा में यही तय हुआ कि, वर्ष 2025 की विजयादशमी से पूर्ण नगर, पूर्ण मंडल तथा पूर्ण खण्डों में दैनिक शाखा तथा साप्ताहिक मिलन का लक्ष्य पूरा होगा। मोटा मोटी शाखाओं की संख्या 1 लाख करने का लक्ष्य है। श्रीराममंदिर के उद्घाटन समारोह से पहले अयोध्या जी से लाए गए पूजित अक्षत को घरों में बांटने के दौरान संघ एवं समवैचारिक संगठनों के 44 लाख 98 हजार कार्यकर्ता देश के 5 लाख 98,778 गांवों तक पहुंचे थे। 19 करोड़ 38 लाख परिवारों तक अक्षत पहुंचाया गया और 22 जनवरी को पांच लाख 60 हजार स्थानों पर 9.85 लाख कार्यक्रम हुए।
अन्य अनेक संगठनों की समस्या है कि भारत के जनमानस को न समझने के कारण उचित भूमिका नहीं निभाते या विपरीत चले जाते हैं। दूसरी ओर संघ उसे समझ कर उसके अनुसार भूमिका निभाती है और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने की कोशिश करता है। अगर आप संदेशखाली को इसलिए महत्व नहीं देंगे कि इससे भाजपा को लाभ हो जाएगा तो जनमानस, जो उनकी आवाज उठाएगा उनके साथ खड़ा होगा उसके साथ जाएगा। श्रीराम मंदिर का उदाहरण लीजिए। राम मंदिर के निर्माण के लिए चंदा एकत्रित करने के लिए संघ के कार्यकर्ता 10 करोड़ से अधिक घरों में पहुंचे थे। प्राण प्रतिष्ठा से संबंधित जगह-जगह से सूचनाओं को एकत्रित करने के बाद इन कार्यक्रमों में 27.81 करोड़ लोगों की हिस्सेदारी का आंकड़ा दिया गया है। जरा सोचिए विरोधियों को कहीं भी कल्पना थी कि प्राण प्रतिष्ठा उत्सव के लिए संघ अपने संपूर्ण परिवार के साथ कितना व्यापक अभियान चला रहा है? संघ ने अयोध्या आंदोलन को सामान्य मंदिर निर्माण का आंदोलन नहीं माना। उसे देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आध्यात्मिक राष्ट्र के निर्माण के आंदोलन के रूप में लिया और इसके लिए समाज के सभी वर्गों के साथ देशव्यापी संपर्क और उनका मंदिर से किसी न किसी रूप में जोड़ने के लिए हर संभव प्रयत्न किया। प्रतिनिधि सभा में श्रीराम मंदिर राष्ट्रीय पुनरुत्थान की ओर नामक शीर्षक से पारित प्रस्ताव को देखने के बाद यह आभास हो जाता है कि संघ के नेतृत्व में पहले तथा वर्तमान एवं भविष्य की दृष्टि से फोकस कर दूरगामी दृष्टि से योजनाएं बनाई हुई है। उसी का परिणाम है कि अभी तक श्रीराम मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ बनी हुई है।
वास्तव में श्री राम मंदिर भारत के मानस और व्यवहार में परिवर्तन का स्वतंत्रता के बाद अभी तक का सबसे बड़ा कारक बन रहा है। आप इसे महत्वहीन करार देंगे, संघ की सांप्रदायिक योजना बताएंगे, सेक्युलरवाद के नाम उससे दूर रहेंगे तो जन भावनायें संघ और उसके संगठनों के साथ जुड़ेगी। ऐसा नहीं है कि जिन लोगों तक श्रराम मंदिर के चंदे, पूजित अक्षत आदि को लेकर स्वयंसेवक -कार्यकर्ता गए वे सब संघ और भाजपा के समर्थक ही होंगे। उनमें विरोधियों या तटस्थ लोगों की भी बड़ी संख्या होगी, किंतु उन तक भी पहुंचने का यह श्रेष्ठ माध्यम था, क्योंकि भारतीय समाज में श्रीराम को लेकर कोई विरोध नहीं तथा अयोध्या में ध्वस्त किए गए स्थान पर मंदिर बनना चाहिए यह भावना सामूहिक रही है। यह विरोधियों के लिए भी ठहरकर अपने व्यवहार पर पुनर्विचार करने का समय है।